मदीने में

on Monday 16 November 2015

तमन्ना है यही मेरी यही हसरत है सीने में 
मुझे उम्मीद है आक़ा बुलाएँगे मदीने में 

नहीं मुमकिन डुबो दे ये भंवर मेरे सफीने को 
नबी के नाम का परचम लगाया है सफीने में 

अक़ीदत से जो मांगोगे मिलेगा बिलयकीं तुमको 
कमी थी न कमी है मेरे आका के खजीने में 

लगा ले गर इसे दुल्हन महक जाएँ कई नस्लें 
बसी है ऐसी खुशबु मेरे आक़ा के पसीने में 

मुझे अपने ग़ुलामों की ग़ुलामी में सदा रखना 
मैं पत्थर हूँ मेरे आक़ा बदल दीजे नगीने में 

कोई हसरत नहीं बाक़ी मेरे दिल में सिवा इसके 
मेरी जब भी क़ज़ा आये तो आये बस मदीने में 

कोई हसरत नहीं आक़ा मेरे दिल में सिवा इसके 
मुझे भी मौत से पहले बुला लेना मदीने में 

खफा खफा ही लगे

on Monday 28 September 2015
पिला दे ज़हर भी तू तो मुझे  दवा  ही लगे 
तेरा कसूर भी मुझको तेरी अदा  ही लगे 

हबीब बनता हे रखता हे बुग्ज़ दिल में मगर 

हर एक उसकी दुआ मुझको बद्दुआ ही लगे 

मिला हे हंस के वो मुझसे मेरे गले भी लगा 

मगर मुझे तो वो अब भी खफा खफा ही लगे 

गुज़र गया हे ज़माना बहार  देखे हुए 

ये खिड़की खोलो ज़रा सुबह की हवा ही लगे 

अजीब हाल हे दिल का न पूँछ मेरे सनम

मेरे करीब हे लेकिन जुदा जुदा ही लगे 

यही दुआ हे ये हसरत हे आरज़ू हे मेरी 

गुलाब जैसा ये चेहरा खिला खिला ही लगे 

नात ए पाक

on Saturday 8 August 2015









ये जो तख्लीके दुनिया हे नबी की ही बदोलत है 
सना ए मुस्तफ़ा करना वज़ीफ़ा हे इबादत है 

ख़ुदा को हमने जाना हे मुहम्मद के बताने से 
उन्ही का ही करम हे ये ,ये उनकी ही इनायत है 

जहाँ में ख़ूब जपता हे तू माला शिर्क़ो बिदअत की 
तू सुन ले ग़ोर से नज्दी तेरी महशर में शामत है 

ज़ियारत ख़्वाब में होती हे उनको ही शहे दीं की 
दरुदे पाक के नगमे सजाना जिनकी आदत है 

फ़रिश्ते अर्श से करने ज़ियारत इनकी  आते हैं
गुलामाने मोहम्मद की ये अज़मत शानो शोक़त है 

ख़ुदा ने कर दिया आला मकामे आले अतहर को 
मोहम्मद के घराने की तो दो आलम में शोहरत है 

वहाँ खैरात बंटती हे यहाँ भी भीख मिलती है 
वहाँ उनका हे मोज़ज़ा यहाँ इनकी करामत है 

मोहम्मद के तवस्सुल से ख़ुदा हमको मिला हसरत 
जो आशिक़ हैं मोहम्मद के उन्ही के नाम जन्नत है  

मन्क़बत

on Thursday 30 July 2015
                
  कुछ ऐसा फैज़ मिलता हे रज़ा के आस्ताने से 
  अकीदा ठोस होता हे बरेली आने जाने से 

 रज़ा का नाम चमका हे मदीने की तजल्ली से 
 मिटा हे न मिटेगा ये किसी के भी मिटाने से

 मैं रज़वी हूँ मुझे दुनिया रज़ा का शेर कहती हे
 ए नज्दी तू न टकराना रज़ा के इस दीवाने से 

 ये वो अहमद रज़ा हे जिसने निस्बत को ज़िया बख्शी 
  लिपट कर खूब रोया हे नबी के आस्ताने से 

ज़माना  इस लिए अहमद रज़ा को याद करता हे 
बला की उनको निस्बत थी मोहम्मद के घराने से 

मुजद्दिद तो बहुत गुज़रे ज़माने से मगर हसरत 
मेरे अहमद रज़ा जैसा नहीं गुज़रा ज़माने से  

हो के मजबूर उसूलों से बग़ावत की है

on Thursday 16 April 2015









  जाने  क्या सोच के उसने ये हिमाक़त की है 
   हो के दरिया जो समंदर से अदावत  की है

 खींच लायी हे तेरे दर पे ज़रुरत मुझको 
हो के मजबूर उसूलों से  बग़ावत की है 

हमने ख़ारों पे बिछाया हे बिछोना अपना 
हमने तलवारों के साये में इबादद की है 

अच्छे हमसाये की तालीम मिली हे हमको 
हमने जाँ दे के पडोसी की हिफाज़त की है 

आज आमाल ही पस्ती का  सबब  हैं  वरना
हमने हर दौर में दुनिया पे हुकूमत की है 

दम मेरा कूच -ए -सरकार  जाकर निकले 
 इस तमन्ना के सिवा  कुछ भी न हसरत की है   

अश्क़ों की धार में

on Thursday 5 March 2015
सोचा था हमने फूल खिलेंगे बहार में
सींचा चमन लहू से इसी ऐतबार में

दिल भी नज़र भी ख़्वाब भी सब आपके हुए
कुछ भी नहीं  हे अब तो मेरे  इख्तियार  में

ए  सग तेरे  नसीब का  क्या तज्क़रा  करूं
तू  आये  जाए  रोज़  सनम  के  दयार  में

होशो हवास अक्लो  खिरद हसरतें तमाम
सब  कुछ  लुटा  दिया  हे  तेरे  इंतज़ार में

कोशिश अदू की नीचा दिखाने की हे मगर
हरगिज़  कमी  न  आएगी  मेरे  वक़ार में

आया  वफ़ा की  राह  में  कैसा मकाम  ये
अब  ज़िन्दगी  खड़ी हे ग़मों की क़तार में

कोशिश के बावजूद भी कटती नहीं हे शब
उठ  उठ  के  बेठता  हूँ  तेरे  इंतज़ार  में

हसरत वफ़ा की राह में सब कुछ लुटा दिया
सपने  तमाम  बह  गए  अश्क़ों की धार में

हयात हमने गुज़री हे इन्तेहाँ की तरह

लहू से जिसको के सींचा था बागबां की तरह
वही चमन नज़र आता हे अब खिज़ां की तरह 

हवा का झोंका भी आया तो रोक लूँगा उसे 
खड़ा हूँ तेरी हिफाज़त में पासबां की तरह 

                                                  कभी हयात में हमको सुकूं  मिला ही नहीं                                                     के रोज़ो शब् नज़र आते हैं कारवां की तरह 

खुदा की याद में खुद को मिटा लिया जबसे 
मेरा वजूद ज़मीन पर हे आसमां की तरह 

ये तज़र्बे  बड़ी मुश्किल से पाये हैं हमने
हयात हमने गुज़ारी हे इन्तेहाँ की तरह 

वो जिसको लोग बुरा आदमी बताते थे 
सुलूक़ मुझसे किया उसने मेहरबां की तरह 

तमाम उम्र गुज़ारी हे मैंने ख़्वाबों में 
मुझे लगे हे हकीकत भी अब गुमां की तरह 

ज़ुबान खोल दी मैंने तो तेरी खैर नहीं 
इसी सबब से खड़ा हूँ मैं बेज़ुबां की तरह 

वो जिसके वास्ते खुद को मिटा दिया हमने 
भुला दिया हे हमें उसने दास्ताँ की तरह 

अजीब हाल हे हसरत जहाँ के लोगों का 
यहाँ यहाँ की तरह हैं वहां वहां की तरह